
उठ बे कलुआ चल करघे पर
काम नहीं करना है का
रेज़ा कैसे पूरा होइये
ढरकी नहीं फेंकना का
.जब देखो तब गुल्ली डंडा
खेलो कब्रिस्तान में
मुर्दे साले खाना देहिये
मुझको ही मारना है का
.कलिये गए रहे कोठी पर
स़उआ बोला आओ कल
कल तो अब कलिये अइहे
भूखो ही मरना है का
.कैसी है अंधेर की नगरी
सब का भाव बरोबर है
नकली माल बिक़े असली पर
यही हमें बिनना है का
.साव गिरस्ता खाय अमरिति
जोलहा ताके टुकुर-टुकुर
बासी रोटी मिले चाय संग
और हमें मिलना है का
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12 comments:
बहुत सुन्दर कविता. क्षेत्रीय परिवेश और उसकी त्रासदी का चित्रण मानो मूर्त हो गया है.
सुन्दर कविता
आपके ब्लॉग की प्रथम रचना और इतनी बुलन्द !!
बधाई हो बधाई.
हिन्दी ब्लॉगजगत के स्नेही परिवार में इस नये ब्लॉग का और आपका मैं ई-गुरु राजीव हार्दिक स्वागत करता हूँ.
मेरी इच्छा है कि आपका यह ब्लॉग सफलता की नई-नई ऊँचाइयों को छुए. यह ब्लॉग प्रेरणादायी और लोकप्रिय बने.
यदि कोई सहायता चाहिए तो खुलकर पूछें यहाँ सभी आपकी सहायता के लिए तैयार हैं.
शुभकामनाएं !
"टेक टब" - ( आओ सीखें ब्लॉग बनाना, सजाना और ब्लॉग से कमाना )
आपके ब्लोग पर आ कर अच्छा लगा! ब्लोगिग के विशाल परिवार में आपका स्वागत है! अन्य ब्लोग भी पढ़ें और अपनी राय लिखें! हो सके तो follower भी बने! इससे आप ब्लोगिग परिवार के सम्पर्क में रहेगे! अच्छा पढे और अच्छा लिखें! हैप्पी ब्लोगिग!
यथार्थ को मूर्त करती असाधारण कविता। आभार!
बहुत सुन्दर कविता
सुन्दर कविता...हिन्दी ब्लॉगजगत में आपका स्वागत है.
बहुत सुन्दर कविता बधाई हो बधाई
स्वागत! ब्लोग जगत मे प्रवेश करने पर। "टुकुर-टुकुरबासी रोटी मिले चाय संगऔर हमें मिलना है का". क्षेत्रीय बोली तो बोली है बड़ा प्रेम रहता है। सुन्दर! हम भी अपने इलाके मे बोली जाने वाली बोली "छत्तीसगढ़ी" मे (अब तो वह राजभाषा का दर्जा प्राप्त कर चुकी है)कुछ बतिया लेते हैं।
हिन्दी चिट्ठाजगत में स्वगत है।
अति सुंदर
Bahut hi sahi likhaa hai aapne. Blog ki duniya me aapka swagat hai. Apko bahut-bahut badhaai.
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