Wednesday, July 7, 2010

मुर्दाखोर ... (लघुकथा)

समानांतर दूर-दूर तक फैली लौह पटरियाँ, उन्हीं के बीच स्थित रेलवे स्टेशन. प्रथम श्रेणी के टिकट घर के सामने ही ढलान से तीव्र हवाओं का झोंका आ रहा था. हवाएँ सर्द थी. जनवरी माह की सुबह झपकी एक एहसास दिला रही थी.

तभी दोनों लड़खड़ाते हुए खिड़की की ओर आते हुए दिखे.

'हुजूर सलाम' की आवाज आयी. दाँत निपोरे हुए प्लेटफार्म का गदाई खड़ा था दीन-हीन मुद्रा में.

''हुजूर ! इसका चिल्लर (फुटकल) दे दीजिये ....  सुबह ..... सुबह कहीं नहीं मिल रहा है .... ''

नोट लेकर मैंने उसको भीतर बुलाया तो दूसरा सशंकित होकर उसकी कान में कुछ बोला.

दोनों पेशेवर कफ़न फ़रोश थे. पुल पर मुर्दा सुलाकर बोली लगाने वाले.

''हुजूर सब जानते हैं ... साले सबको कंगाली समझता है, मादर ....."  कहता हुआ वह भीतर आ गया.

"कहाँ से मिल गया तुझे ... "  मैनें पूछा.

लगता है रातभर पीकर सड़क पर पड़ा रहा. कीचड़ का धब्बा, खून का छींटा, पाजामा चिंगुरा हुआ गंदीला.

वह नशे में था और पैर पकड़ लिया.

"झूठ नहीं बोलूँगा, आप पुराने मालिक हैं. कल दो लाशें मिल गयी थीं, उसी की कमाई है. ठिकाने लगाकर आ रहा हूँ. कई दिनों के बाद मिला पीने को, बड़ी कड़की है आजकल. कोई मरता नहीं. बाहर से लाश लाने की मनाही है. लगता है 'धन्धा' बन्द हो जायेगा."

पूरा कमरा अज़ीब दुर्गन्ध से भर उठा था अब तक.

"थाने से एक पैसा नहीं मिला, उलटा ड्यूटी वाला पैसा माँग रहा है. बताइये क्या करूँ ... क्या जुलूम है."

कंगाली अब रोने लगा था.

"वह जो बैठा करता था सर, अन्धा बंगाली गाने वाला, ड्यूटी वाले ने जानबूझ कर ट्रेन से कटवाया था. हुजूर मुझसे ही धक्का दिलवाया गया था. बहुत जबरदस्ती है. हुजूर भीख मांगने पर हिस्सा ..... मुर्दा बेचने पर हिस्सा ... ऐसा ज़ालिम मैने कभी नहीं  देखा था."

वह लगातार रोता जा रहा था. सामने से आती हुई तीव्र हवाओं क झोंका रूका हुआ लग रहा था. मेरी तन्द्रा भंग हो चुकी थी.

कंगाली जा चुका था केवल दुर्गन्ध रह गई थी.

एक तारा पर बाऊल गाने वाले की धुन अब कभी सुनाई नहीं देगी. 

Wednesday, June 23, 2010

बासी रोटी




उठ बे कलुआ चल करघे पर
काम नहीं करना है का
रेज़ा कैसे पूरा होइये
ढरकी नहीं फेंकना का
.
जब देखो तब गुल्ली डंडा
खेलो कब्रिस्तान में
मुर्दे साले खाना देहिये
मुझको ही मारना है का
.
कलिये गए रहे कोठी पर
स़उआ बोला आओ कल
कल तो अब कलिये अइहे
भूखो ही मरना है का
.
कैसी है अंधेर की नगरी
सब का भाव बरोबर है
नकली माल बिक़े असली पर
यही हमें बिनना है का
.
साव गिरस्ता खाय अमरिति
जोलहा ताके टुकुर-टुकुर
बासी रोटी मिले चाय संग
और हमें मिलना है का
.